हनुमान के लंका जाते समय समुद्र के बीच में कौन सा पर्वत था? वाल्मीकि रामायण द्वितीयः सर्गः श्लोक ४६ से ५७
रावणस्य पुरी रात्रौ प्रविश्य सुदुरासदाम् । विचिन्वन्भवनं सर्व द्रक्ष्यामि जनकात्मजाम् ॥ ४६॥
इस अत्यन्त दुर्धर्ष रावण की राजधानी लङ्कापुरो में रात के समय घुस कर प्रत्येक घर में जा कर, सोता जो को खोजा ।। ४६ ॥
इति निश्चित्य हनुमान्सूर्यस्यास्तमयं कपिः । आचकाक्षे तदा वीरो वैदेह्या दर्शनोत्सुकः ॥४७॥
इस प्रकार अपने मन में निश्चय कर जानकी जी को देखने के लिये उत्सुक वीर हनुमान जी, सूर्यास्त की प्रतीक्षा करने लगे॥४७॥
सूर्ये चास्तं गते रात्रौ देहं संक्षिप्य मारुतिः । वृषदंशकमात्रः सन्बभूवाद्भुतदर्शनः ॥ ४८ ॥
जब सूर्य अस्ताचलगामी हुए, तब हनुमान जी ने अपने शरीर को बिल्ली के समान छोटा और देखने में विस्मयोत्पादक बनाया ॥ ४८ ॥
प्रदोषकाले हनुमास्तूर्णमुत्प्लुत्य वीर्यवान् । प्रविवेश पुरीं रम्यां सुविभक्तमहापथाम् ।। ४९ ॥
वीर्यवान हनुमान जी तुरन्त परकोटा फांद कर, उस रमणीय और सुन्दर राजमार्गों से युक्त, लङ्कापुरी में घुस गये ॥ ४६॥
प्रासादमालाविततां स्तम्भैः काञ्चनराजतैः । शातकुम्भमयैर्जालैर्गन्धर्वनगरोपमाम् ॥ ५० ॥
हनुमान जी ने लङ्का के भीतर जाकर देखा कि, बड़े बड़े भवनों की श्रेणियों से और अनेक सुवर्णमय खंभों से तथा सौने के झरोखों से लङ्कापुरी गन्धर्व नगरी की तरह सजी हुई है ॥ ५० ॥
सप्तभौमाष्टभौमैश्च स ददर्श महापुरीम् । तलैः स्फटिकसङ्कीर्णैः कार्तस्वरविभूषितैः ॥५१॥
सत-अठ-खने-भवनों से और स्फटिक खचित तथा सुवर्ण भूषित अनेक स्थानों से वह राक्षसों की निवासस्थली लङ्कापुरी अत्यन्त शोभायुक्त देख पड़ती थी ।। ५१॥
वैडूर्यमणिचित्रैश्च मुक्ताजालविराजितैः । तलैः शुशुभिरे तानि भवनान्यत्र रक्षसाम् ॥५२॥
राक्षसों के घरों के फर्श वैडूर्य मणियों के जड़ाव और मोतियों की झालरों से शोभित थे ।। ५२ ॥
काञ्चनानि विचित्राणि तोरणानि च रक्षसाम् । लङ्कामुद्दयोतयामासुः सर्वतः समलंकृताम् ॥ ५३ ॥
राक्षसों के घर के तोरणद्वार, जो सुवर्णनिर्मित और रंग विरंगे बने हुए थे, चारों ओर से विभूषित हो लङ्का की शोभा बढ़ा रहे थे ॥५३॥
अचिन्त्यामद्भुताकारां दृष्ट्वा लङ्कां महाकपिः । आसीद्विषण्णो हृष्टश्च वैदेह्या दर्शनोत्सुकः ॥ ५४ ॥
जानको जी के दर्शन के लिये उत्सुक:महाकपि हनुमान जी इस प्रकार की अचिन्तनीय और आश्चर्यजनक बनावट की लङ्कापुरी को देख, पहिले तो हर्षित हुए, फिर पीछे उदास हो गये ॥ ५४॥
स पाण्डुरोनद्धविमानमालिनी महार्हजाम्बूनदजालतोरणाम् । यशस्विनी रावणबाहुपालितां क्षपाचरैीमबलैः समावृताम् ॥ ५५ ॥
हनुमान जी ने देखा कि, रावण द्वारा रक्षित, प्रसिद्ध लङ्का. नगरी, श्रेणीबद्ध सफेद अट्टालिकाओं से, महामूल्यवान् सुवर्णमय झरोखों और तोरणद्वारों से अलङ कृत है और अत्यन्त बलिष्ट राक्षसों की सेना चारों ओर से उसकी रखवाली कर रही
उत्तिष्ठते नैकसहस्ररश्मिः ॥५६॥
उस समय मानों वायुपुत्र की सहायता करने के लिये अनेक किरणों वाला चन्द्रमा, ताराओं के साथ, चांदनी छिटकाता हुआ आकाश में था बिराजा ॥५६॥
इति द्वितीयः सर्गः॥
कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ने देखा कि, सरोवर में जिस प्रकार हंस उछल कूद मचाते है, उसी प्रकार दूध अथवा मृणाल वर्ण, शङ्क की तरह चन्द्रमा भो श्राकाश में उदय हो कर ऊपर को उठ रहा है॥ ५७॥
सुन्दरकाण्ड का दूसरा सर्ग पूरा हुआ।
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,
सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77,
प्रथम सर्ग 78 से 117,
Sarg shlok 139 se 161 in hindi,
श्लोक १६२ से २१०,
सोने की लंका का वर्णन,

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