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Sarana Sanatan Dharma: उराँव सरना धर्म और उनके देवी देवता - आदि देवता महादेव जी हैं

Sarana Sanatan Dharma उराँव सरना धर्म और उनके देवी-देवता


(1) धर्मेश आदि देवता महादेव जी - 

उराँव सरना समाज निराकार प्रभु का उपासक है। साथ ही साथ देवी-देवताओं की भी उपासना की जाती है। भगवान- सृष्टिकर्ता एक है किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उन्होंने इस दुनिया में विभिन्न रूपों में कई बार अवतार लिया है। आदि देवता महादेव जी हैं, ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन्हीं के अलग-अलग रूप है इनके अलावे अन्य अवतार भी इन्हीं के प्रतिनिधि हैं । इसी प्रकार पार्वती के भी अनेक देवी अवतार है। लक्ष्मी, सरस्वती, गौरी, सत्ती इत्यादि इन्हीं के अलग-अलग रूप है। महादेव और पार्वत्ती निराकार रूप में हैं। उराँव सरना मतावलम्बियों का लोक विश्वास है कि धर्मेश अर्थात् सर्वशक्तिमान पिता ही परमेश्वर याने सृष्टिकर्ता हैं । उन्हीं के अधीन देवी-देवता, भूत- प्रेत, मनुष्य, कीड़े-मकोड़े और चर-चराचर जीव-जन्तु हैं । देवी-देवताओं या भूत-प्रेतों के तंग करने पर ये सर्वशक्तिमान पिता-धर्मेश का स्मरण करते हैं। धर्मेश के लिए सफेद मुर्गा, सफेद बकरा, सफेद भेड़ या मुर्गी का अंडा बलि में चढ़ता है । सफेद का अर्थ है-साफ, पवित्र, निष्पाप एवं भगवान स्वरूप । महादेव के अवतार शिव के लिए शिवलिंग की स्थापना की जाती है। उराँवों का जोख चंडी या मूतरी चंडी भी महादेव जी ही हैं। महादेव जी पीपल और वट पेड़ों में निराकार रूप में बास करते हैं। सिलोट का लोरहा जिसकी स्थापना की जाती है वह भी शिव का प्रतीक है। आदि शक्ति जगत माँ जननी ही उराँवों के बीच सरना माँ है। भक्त लोग सवेरे स्नान करके शिव जी पर जल चढ़ाते हैं वे दूध भी ढालते हैं। जिनके बाल-बच्चे नहीं होते हैं वे भी शिव लिंग अर्थात् शिवजी पर जल ढालते हैं और लड़का पैदा होने पर उस नवजात शिशु का नाम महादेव या शिव रखते हैं और लड़की होने पर नाम पार्वती रखा जाता हैं । मनौती के मुताबिक इनके सिर के बाल को मूड़कर शिव लिंग पर चढ़ा दिये जाते हैं। देवताओं के प्रतीक में लोरहा, लकड़ी का खूटा, हल और लोहे रहते हैं। महादेव जी के नाम में किसी-किसी गाँव में मंडा लगाने की प्रथा है। मंडा के अवसर पर महादेव जी की पूजा विधिपूर्वक होती है । एक गाँव में सालभर में एक ही बार मंडा लगाया जाता है। मेला के मंगलमय सम्पन्न होने के लिए उनके सेवक-भोगता नियम-पूर्वक स्नान करके उपवास करते हैं। ये दिन में तीन बार स्नान करते हैं। अन्तिम दिन भोगता और उनकी सेवाइतें जो अक्सर; माँ या बहनें होती है सात बार स्नान करके शाम के समय आग याने महादेव जी के फूल पर तीन बार खाली पैर चलती हैं। महादेव जी की कृपा से सच्चे सेवकों के पैरों में तनिक भी जलन या आग का प्रभाव नहीं होता है। जो भोगता या सेवाइत नियम-धर्म का पालन नहीं करते हैं। उनके पैरों में फफोले पड़ जाते हैं। लोगों को विश्वास है कि नियम-धर्म पूर्वक सेवा नहीं करने से वरदान की जगह सजा मिलती है। फूल खुन्दी या जागरण के दिन छाऊ-नृत्य का आयोजन होता है। गाँव के आस-पास के लोग छाऊ नृत्य और जागरण देखने के लिए उमड़ पड़ते है | अन्तिम दिन झूलन होता है। इस अवसर पर मेला लगता है। आस-पास के लोग झूलन तथा मेला देखने के लिए भीड़ के भीड़ आते हैं । बोल-चाल की भाषा में इसे मंडा जतरा कहा जाता है । झूलन मंदिर के प्रांगन ही में होती है। प्रत्येक सेवक याने भोगता एक-एक करके लकड़ी के झूले में झूलते हैं। खूटे के ऊपर लकड़ी के एक छोर में उनको बाँधकर दूसरे छोर से घुमाते हैं। कहीं-कहीं सच्चे सेवक को लोहे के अंकुश से फँसा कर घुसाते देखा जाता है | महादेव जी की कृपा या शक्ति के कारण उनको कोई खतरा या पीड़ा नहीं होती है। डंडा काटना पूजा में धर्मेस (महादेव जी) के पास 'आराधना की जाती है। 


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(2) सरना माँ-

चाला पच्चो बंगायो सरना माँ या सरना बुढ़िया (झकरा बुढ़िया) उराँव सरना समाज की देवी है। सर्व रूप धारण करने वाली आदिशक्ति उराँवों के बीच बूढ़ी औरत के रूप में प्रगट, सरना माँ के रूप में जानी जाती है। सरहुल त्योहार के समय विशेषतः सरना स्थल में उनकी पूजा विशेष रूप में होती है। सरना माँ को धरती माँ, वनदेवी या भगवती की उपमा भी दी जाती है । जो घन घोर जंगलों में साल वृक्ष से दर्शन दी उसी समय से राक्षसों, बाध-भालुओं, साँप-बिच्छुओं और भयंकर भूत-प्रेतों से उराँव आदिवासियों को वह रक्षा करते आयी है। उन्होंने दर्शन दे कर अपने प्रिय जनों को पुकारा और निर्देष दिया कि प्रत्येक गाँव में उसकी स्थापना हो और सुरक्षा के लिए सीमानों पर चंड़ी, गाँव में देवी माँ और दरहा स्थल की स्थापना हो । ऐसा करने से गाँव के लोग सुरक्षित रहेंगे। मेरी पूजा प्रत्येक वर्ष चैत तृतीया में किया करें । ऐसा उपदेश देकर वह साल वृक्ष में लुप्त हो गई। इसीलिए साल वृक्ष को मन्दिर मानकर इसके नीचे पूजा की जाती है। यह देवी अपने शरण में आये लोगों का उद्धार करती है। विपत्ति में सरना माँ भगवती और सरस्वती दोनों का पाठ अदा करती है। सरना माँ बंगायो है। उराँव में आयो का अर्थ माँ और बंगा का अर्थ बाबा (पिता) होता है । अर्थात् आप ही माँ-बाप सब कुछ हैं । सरना माँ पहान के सरना सूप और सरना स्थल के साल वृक्ष या प्रतिनिधि पेड में अदृश्य रूप में बास करती है । यह अपने सच्चे भक्तों और पहान को कभी-कभी रात के समय दर्शन देती है। मान्यता है कि सरना माँ आदिवासियों के बीच सफेद लम्बे बालों के साथ बिल्कुल उजली साड़ी धारण की हुई छाया के रूप में रहती है । सिर के बाल जमीन को छूते हैं । समूचे शरीर में वह साधू-महात्माओं के समान भभूत लगायी रहती है। इनका शान्त और दिव्य चेहरा है । इस प्रकार इनका रूप निष्कलंक एवं आलौकिक है। उनकी पूजा सरहुल के समय सरना स्थल के साल पेड़ या उनके प्रतिनिधि पेड़ के नीचे होती है । सरना का साल या प्रतिनिधि पेड़ ही इनका मंदिर है। सरना माँ शान्ति प्रदान करती है। यह हमारी रक्षक है । सरना माँ के स्मरण मात्र से ही पाप, भय और दुःखों का विनाश हो जाता है। सरना माँ देवियों के विभिन्न रूपों में पार्वती है। आवश्यकता के मुताबिक ही यह पृथ्वी पर दर्शन देती है। जय जय माँ सरना । जय माँ जगत जननी।। जय माँ भय हरिणी । जय माँ करूणा निधि ।। जय माँ मुक्ति दायिणी । जय माँ दया सागर ।। तुम्हें शत शत प्रणाम। 




(3) मृत पूर्वज - भगवान के अवतार, 

सभी देवी-देवता सृष्टिकाल, सतयुग, त्रेता और द्वापर में हिन्दुओं के पूर्वज थे। उसी प्रकार शिव-पार्वत्ती, माता-पिता और अन्य पूर्वज अपने-अपने खानदान के लिए देवता का रूप धारण कर लेते हैं। देवता वह है जो देता है। अपने कर्म के साथ माता-पिता के पुण्य-प्रताप या आशीर्वाद से ही सन्तान को मुक्ति मिलती है। स्वर्ग तक पहुँचने का सौभग्य प्राप्त होता है। इसीलिए पूर्वजों के नामों में यादगारी और आदर स्वरूप अन्न, जल और हँड़िया ग्रहण करते समय पूर्वजों और भगवान के नामों में एक-दो दाना अन्न और हँड़िया पानी तीन-तीन बार सखुए के तीन पत्तियों में गिराते हुए इस प्रकार प्रार्थना करते है हरदी नगर रुंइदास, पटना अरा ईयांता हूँ पचवा आलारो, हुदि इन्ना परब गहि नामेनू निमागे असमा अरा झरा चिआ लगदम | होरमर खटरके दरा मोख़के- ओनके दरा एमन दबले उइके । परब-त्योहार दवले वितआ नेकआ । अर्थ - हरदी नगर, रोहतास गढ़, पटना और वर्तमान में यहाँ मरे हुए मृत पूर्वजगण- लीजिये आज हमलोग पर्व के उपलक्ष में आपलोगों को सभों के लिए चाहे आप लोग जहाँ-कहीं भी हों रोटी और हँड़िया पानी तपावन के रूप में गिरा रहे हैं। आप सब लोग इन्हें बँटवारा करके खा पी जायें और हम लोगों को अमन-चैन से रखें। पर्व-त्योहार बड़े धूमधाम से सम्पन्न हो जाय । इस प्रकार वे पुराने जगहों के मृत परिवारों (पूर्वजों) को भी याद करते और उनका आदर सम्मान करते हैं । उराँव सरना परिवार के लोग मृत पूर्वजों को भी समाज का अंग और कुल देवता मानते हैं। प्रायः सभी प्रकार के प्रार्थनों और पूजा-पाठ में उनका नाम लेते हैं । उनको याद नहीं करने से मनोकामना सार्थक नहीं होती है क्योंकि उन्हीं के मार्फत उनके बाल-बच्चे इस दुनिया में आते हैं। पुजारी पूजा में चढ़ाये प्रसादों को घर के लोगों के बीच बाँट देता है और हँड़िया पानी को पंचामृत के रूप में स्वयं पी जाता है। उराँव समाज के लोग अपने जीवनकाल में भी माता-पिता को देवता स्वरूप आदर करते हैं। उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । वे मानते है कि माता-पिता के पुण्य प्रताप से ही उनका जन्म इस दुनिया में हुआ है। इनका यह भी विश्वास है कि माता-पिता को दुःख देने से है मनुष्य को इस दुनिया में सुख की प्राप्ति नहीं होती है । दुःखित माँ-बाप की सेवा-सुश्रूषा करके उनका दुवा-आशीर्वाद लेना जरूरी है | इस प्रकार की सेवा या प्रेम माँ-बाप के लिए इस दुनिया में सत्कार हैं । इन शुभकार्यों से वे माँ-बाप के ऋण से उऋण होते हैं और स्वर्ग का फल पाते हैं । वृद्धा अवस्था में सेवा करने के लिए ही तो वे बाल-बच्चों को जन्म देकर अपने को भाग्य मानते हैं। और उम्मीद करते हैं कि उनके बाल-बच्चे बुढ़ापे में उनकी सेवा करेंगे। मृत्यु होने पर अन्तिम संस्कार करेंगे। 




(4) गावाँ देवती या देवी माँ - 

प्रत्येक गाँव में देवी माँ की स्थापना होती है । यह भगवती (दुर्गा) का रूप है। इसे धरती माँ भी कहते हैं । यह उस गाँव की रक्षा करने वाली आदि-शक्ति होती है। दुःख तकलीफ के समय लोग इसकी मनौती मानकर पूजा-पाठ करते हैं । यह विपत्ति नाशक, मोक्षदायिनी सर्व मंगला है । हरेक वर्ष सावन शुक पक्ष की सातवीं तिथि को गाँव में पहान ग्रामीणों की सुख-सुविधा की याचना करते हुए उनके नाम में एक बकरे की बलि देते हैं । गाँव में बीमारी फैलाने या विपत्ति आने पर चाहे वह मनुष्यों या पशुओं में हो, इससे छुटकारा पाने के लिए गाँव की ओर से पहान सामूहिक पूजा-पाठ करता है। उराँव समाज की मान्यता है कि यही देवी माँ गाँव की सुख-सुविधा, शान्ति । और अमन-चैन के लिए ध्यान रखती है। देवी माँ जहाँ स्थापित रहती है, उस जगह में गुलैची के पेड़ का होना जरूरी है। पुराने जमाने के मंडप का आकार-प्रकार और रूप झोपड़ी नुमा होता था । आधुनिक युग में किसी-किसी गाँव में ईटों से निर्मित मन्दिर भी दिखाई देते हैं । इस स्थान में उत्तर से दक्षिण तीन, पाँच या सात पिंड रहते हैं। ये देवी माँ के कल्याणकारी प्रतीक हैं साथ में त्रिशूल और सात छोटे-छोटे झंडे भी रहते हैं । यही देवी माँ भी पहचान है। कोई भी व्यक्ति मनौती मानकर दुःख-तकलीफों से छुटकारा पाने के लिए देवी माँ के नाम में बकरे का बलि चढ़ाता है। यह देवी, सरना माँ, की शक्ति स्वरूप है। 




(5) पाट राजा, दरहा देशावली तथा महादनिया - 

देवता-पाट राजा-दरहा-देशावली सभी चंडियों और अन्य सहायक देवताओं का प्रधान देवता है। इस देवता की स्थापना, गाँव के बाहर से आने वाले देव-भूतों के आक्रमण से गाँव को सुरक्षित रखने हेतु है । गाँव के चारों दिशाओं में इनके सहायक देवता-शक्ति-चंडी होते हैं जो पहरेदार का काम करते हैं । दरहा पुरुष रूप में देवता और देशावली स्त्री रूप में देवी है। दरअसल में ये शिव और पार्वती के रूप में शक्तिशाली प्रतिनिधि हैं । इनकी स्थापना गाँव के किनारे ऊँची जगह में रहती है। उराँव समाज के लोगों का विश्वास है कि साल में एक-दो बार चंडियों की बैठक दरहा-देशावली के दरवार में होती है । इस बैठक में बाहरी देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों के आक्रमण के संबंध में समीक्षा होती है - गहन विचार विमर्श होती है। वे विचार करते हैं कि गाँव के बाहरी आक्रमणकारियों से कैसे गाँव को सुरक्षित रखा जाय । बैठक में समीक्षा के बाद दरहा-देशावली या पाठराजा का आदेश होता है कि सीमाने पर स्थापित सभी चंडियाँ रक्षा के मामले में सतर्क रहें । प्रत्येक वर्ष सरहुल त्योहार के समय कसरी मुर्गे, तीन वर्षों में भेड़ या पाँच-सात वर्षों में भैंसा इनके लिए बलि में चढ़ाये जाते हैं। इस खर्चे का वाहन दरहा खेत जोतने वाले को ही करना पड़ता है। कभी-कभी किसी-किसी बीमारी को शान्त करने के लिए गाँव भर के वसूले चंदों से पूजन कार्य सम्पन्न होता है । बलि में चढ़ाये गये जानवरों के कालेजियों या खून को छूटों या पत्थरों में जहाँ जैसा स्थापित हो देकर या छुआकर इसे शान्त करने के लिए विनती की जाती है। अगर स्थापित छूटा सड़ जाता है तो इसे उसी अवसर पर बदल कर नया खुंटा स्थापित कर दिया जाता है । महादनियाँ- यह एक शक्तिशाली देवता है । महादेव जी का प्रतिनिधि है। इसकी स्थापना गाँव के बाहर पश्चिम की ओर रहती है। यह गाँव की बीमारियों या आफतों से बचाती है । इसकी पूजा-पाठ करने के लिए महादनियाँ पहान की नियुक्ति होती है। पड़हा के अन्दर एक या दो गाँवों को महादनियाँ गाँव का दर्जा दिया जाता है । महादनियाँ देवता के चारों ओर मुख्य-मुख्य देवता और चंडियाँ स्थापित किये जाते हैं । भेड़, बकरे और भैंसा इनके लिए बलि में चढ़ाये जाते हैं । अकाल और बीमारियों या आफतों के समय इसकी पूजा विशेष रूप से होती है। ऐसे चुने गाँवों में बेड़ो एक महादनियाँ गाँव है । गाँव के उत्तर-पश्चिम कोने में इसकी स्थापना की गयी है | स्थापना की जगह में एक बड़ा मैदान है । यहाँ एक पुराना शिव मंदिर है जो कंकड़ रूपी लाल पत्थरों से बना है। हाल फिलहाल में इसी मैदान के किनारे प्रखण्ड कार्यालय बनाया गया है । इसी प्रकार चान्हों प्रखण्ड में लुंडरी और सिलागाँई महादनियाँ गाँव हैं। पहले भी वर्णन किया जा चुका है कि महादनियाँ एक शक्तिशाली देवता है। उदाहरण स्वरूप बेड़ों गाँव में कोई भी मुसलमानवास नहीं कर सकते थे । जो भी बसते थे उनका वंश खत्म हो जाता था। उस गाँव का पहान सही ढंग से पूजा-पाठ नहीं कर रहा है इसलिए हाल फिलहाल में कुछ मुसलमान बसते नजर आ रहे हैं । देवी अपनी शक्ति का प्रयोग पहान की पूजा, इच्छा, बचन और प्रार्थना के अनुसार करती है। 




(6) चंडी - चंडियाँ, महादेव-पार्वती की शक्तियाँ हैं। 

ये उराँव गाँव के चारों सीमानों पर गाँव की रक्षा हेतू स्थापित रहती हैं। इसके अलावे चंडियों की स्थापना अलग-अलग प्रयोजनों एवं सिद्धियों के लिए अलग-अलग जगहों में स्थापित की जाती है। इन चंडियों की पूजा पहान, युवक धांगरों और युवतियों द्वारा की जाती है । जतरा चंडी की पूजा पहान जतरा लगने के पहले करते हैं गाँव के लोग भी इस पूजा में सामूहिक रूप से शामिल होने की कामना करते हैं। पद्दा चंडी (गाँव की चंडी) के लिए भी पहान के साथ सामूहिक पूजा होती है। जैसे पूर्व में बतलाया गया है कि अलग-अलग सिद्धियों के लिए अलग-अलग चंडियाँ होती हैं इनमें मुख्य है- पद्दा चंडी, जतरा चंडी, जोख चंडी, पेल्लो चंडी, पच्चो चंडी, शिकार चंडी इत्यादि । जोख़ चंडियों की पूजा नव युवक धांगरों द्वारा कार्य सिद्धियों के लिए की जाती है । फागुन शिकार के समय चारों सीमानों के चंडियों एवं जोख़ चंड़ी (महादेवजी) की पूजा एड़ा मोखना त्योहार के समय एक काले बकरे या काली पठिया का बलि देकर पूजा-पाठ करते हैं । पेल्लो चंडियों की पूजा नवयुवत्तियाँ करती हैं जो पेल्लो धुमकुड़िया की सदस्या होती हैं । फागुन और सरहुल त्योहार के समय जल ढाल कर तेल-सिन्दूर देती हैं । अन्त में प्रणाम कर कार्य सिद्धि की कामना करती हैं। वर्षा नहीं होने, महामारी फैलने या आफत आने पर महादनियाँ की पूजा करती हैं। एक चुनी हुई औरत स्नान करके महादनियाँ चंडी के पेड़ का तीन चक्कर काटकर तेल-सिन्दूर और जल-दूध देकर पेड़ में तीन लपेटन अरवा सूत लपेट कर गाँव के लिए आशीर्वाद माँगती है। उराँव सरना समाज के लोगों का विश्वास है कि ऐसा करने से वर्षा होती है और आधि-व्याधि भाग जाती है। पच्चो चंडी की पूजा बूढ़ी औरतें करती हैं ये भी पर्व-त्योहारों में इन चंडियों पर जल ढालती और तेल-सिन्दूर देती हैं । महादनियाँ चंडी वट और पीपल के पेड़ों पर वास करती है इसलिए जिन पेड़ों के पास यह स्थापित रहती है वहाँ भी जल ढालकर तेल-सिन्दूर देती हैं। चंडियों के रूप में लकड़ी के बने हाथी, घोड़े, बाघ, भालू गिरगिट, रंपाचलापा इत्यादि, प्रतीक होते हैं | पड़हा द्वारा आबांटित इन चिन्हों को लेकर ही जतरे के घोलों (जुलूस) में लोग शामिल होते हैं । जतरा जाने के पहले एक काली मुर्गी के बच्चे को इनके नामों में चरहा कर छोड़ जाता है। शिकार चंडी की पूजा फागुन शिकार के समय नवयुवकों द्वारा की जाती है। उराँव समाज के लोगों का लोक विश्वास है कि इन्हीं चंडियों की कृपा से घनघोर जंगलों में स्वछन्द रूप से विचरण करने वाले जंगली जानवर हिरण, सुअर खरगोश और अन्य पशु पकड़ में आ जाते हैं । जो भी ये गुफाओं में छिपे रहते हैं । चंडी की पूजा नहीं करने पर जंगली जानवर सामने आकर भी भाग जाते हैं या आक्रमण करते हुए आँखों से ओझल हो जाते हैं शिकारियों को दिनभर अथक परिश्रम करने के बाद निराश होकर निहत्थे लौटना पड़ता है तब ये शिकारी गाँव में आकर धांगर पहान से सवाल-तलब करते हैं और उनके द्वारा पूजा-पाठ की समीक्षा करते हैं। वे भविष्य के लिए उनको चेतावनी देते हैं। 




(7) बीड़ी बेलस (सूर्य देवता)- 

उराँव लोग सूर्य देवता को बीड़ी बेलस कहते हैं। बीड़ी (सूर्य) बेलस का अर्थ होता है- राजा, महान, बड़ा, मालिक, सृष्टिकर्ता या मुख्य । इसी देवता के प्रभाव या प्रताप से संसार के मनुष्य, सभी जीव-जन्तु, पेड़- पौधे, कीड़े-मकोड़े और चराचर जीव-जन्तु धरती पर जन्म लेते बढ़ते और फूलते- फलते हैं। सूर्य भगवान महादेव जी का अंग, आँख और शक्तियाँ हैं जो दुनिया को संवारते हैं । सरना मतावलम्बी उराँव लोग सबेरे स्नान करते समय पूरब मुँह करके हाथ जोड़ते हुए जल लेकर सूर्य देवता को प्रणाम करते हैं । वे उनके पास इस प्रकार प्रार्थना करते हैं- हे सूर्य देवता-जन्मदाता आप जिस ज्योति से अंधेरे को नष्ट करते हैं उसी ज्योति से हमारे अन्धकार और पापों को नष्ट कर दें। रोगों, पापों और क्लेशों को भस्मकर दरिद्रता को मिटायें तथा अपने प्रकाश से जीवन को ज्योतिर्मय बना दें और मेरी जो भी गलती जाने-अनजाने में हो जाय उन्हें माफ कर दें-सम्भाल लें। हड़बोरा त्योहार खत्म हो जाने के बाद ये अखाड़े में शुद्धिकरण करते हैं, उस समय ये सूर्य देवता के पास इस प्रकार प्रार्थना करते हैं- देखें ये प्रार्थना क्रम संख्या-16 उराँव सरना समाज के लोग सूर्य देवता का अभार प्रकट करते हुए कोई भी पूजा-पाठ या शुभ कार्य पूरब मुँह करके ही शुभारम्भ और सम्पन्न करते हैं। उनका विश्वास है कि पूरब मुँह करने से कार्य में सफलता, सिद्धि और रोशनी मिलती है । सूर्य समस्त संसार के लिए भगवान का नेत्र है । सातों ग्रहों को सम्भाल कर रखे हुए है। 




(8) खूट, चिगरी नाद, दरहा चिगरी इत्यादि - 

उराँव समाज में जिस परिवार ने जंगलों को काट कर गाँव बसाया वह भूईहर कहलाया । जंगल को काटकर और उखाड़ कर उन्होंने वहाँ वास करने वाले देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को जुटकर गाँव का धक्का पहुँचाया और उनको घर से बेघर किया जिसके कारण भूत-प्रेत या देवी-देवता उनको तंग करने लगे इसीलिए उनको शान्त करने के लिए ये इनकी स्थापना किसी एक जगह में करके पूजा-पाठ करने लगे तथा जानवरों का बलि देना आरम्भ किये । भूईहर परिवारों के बढ़ जाने से वे अलग-अलग हो जाते हैं। ऐसी परिस्थिति में जो उन खेतों को जोतते या खेती-बारी करते हैं उनको छूट की पूजा-पाट करने का दायित्व रहता है । प्रायः खूट की पूजा छूट के परिवार वाले ही करते हैं। कहीं-कहीं उनकी पूजा के लिए पहान भी बुलाये जाते हैं । इस व्यक्तिगत काम के लिए जो भी जमीन आवांटित रहता है। वह भूत खेता जमीन कहलाता है। कभी-कभी देखा जाता है कि किसी-किसी खूट (परिवार) के भूत, गाँव वालों पर हैजा, प्लेग या अन्य संक्रामक बीमारी फैलाते या रोग के रूप में आक्रमण करते हैं तब गाँव वाले उस छूट के भूईहर को पकड़ते हैं और उनको पूजा-पाठ करने के लिए बाध्य करते हैं । अगर वह पूजा-पाठ करने से इन्कार करता है तो गाँव वाले उस भूत खेता को दान करा कर उसे पहान के हाथ में सौंप देते हैं तब वह गैराही खेत कहलाने लगता है । इस खेत को पहान बन्दोवस्त कर देता है और उससे प्राप्त राशि से उस छूट की पूजा करता है । इस प्रकार छूट, चिगरी नाद और दहा चिगरी देवता की श्रेणी में नहीं आते हैं। खूट भूईहरों का निजी देव-भूत है। किसी-किसी परिवार में मनौती भी होते हैं। इनके नामों में बलि चढ़ाने के लिए किसी खास रंग के मुर्गों या जानवरों को चिन्हित नहीं किया गया है । कहीं-कहीं मुर्गा, बकरा, भेंड़, सुअर, भैंसा और आदमी तक को भी बलि में चढ़ाते हैं | आदमी के बलि को नरबलि कहा जाता है | आदमी की जगह में आज-कल भतुए को बलि में चढ़ाने लगे हैं । ये किसी की भलाई नहीं करते पर समाज के लोगों को हानि ही पहुँचाते हैं । ये विनाशकारी होते हैं। उराँव समाज के लोग जब भी कोई नया गाँव बसाते हैं । तब गाँव को सुरक्षित रखने या अमनचैन से रखने के लिए गाँव के चारों दिशाओं में रक्षक देवताओं चंडियों की स्थापना करते हैं। इनके प्रधान देवता ऊँची जगहों या चट्टानों पर रहते हैं जहाँ से ये गाँव की सुख-सुविधा को देखते हैं । गाँव में देवी माँ और सरना माँ भी स्थापित रहती हैं। ये कल्याणकारी होते हैं । 



उराँव सरना मतावलम्बियों को प्रकृति से प्रेम और इनसे सीधा संबंध है। 

प्रकृति में ही इनके देवी-देवता हैं। पूर्व में भी बतलाया गया है कि ये निराकार भगवान के साथ ही साथ देवी-देवताओं पर भी विश्वास करते हैं, क्योंकि देवी-देवता ईश्वर के प्रतिनिधि, इस संसार में हैं । पुनर्जन्म पर इनका धार्मिक विश्वास है। ये धर्म भीरु होते हैं इसलिए पग-पग में भगवान को याद कर पूजा-पाठ करते रहते हैं। इनको दुःख-तकलीफों से छुटकारा पाने की इच्छा होती है। ये विघ्न-बाधाओं से रहित जीवन की अभिलाषा कर अपनी सुरक्षा चाहते हुए जीवन में आनन्द उल्लास, उमंग इत्यादि की प्राप्ति के लिए समृद्धि, उन्नति, समानता, सम्पन्नता और शक्तियों के समक्ष अपने को आत्मर्पण करते और उनकी कृपा प्राप्त करने की अभिलाषा रखते हैं ताकि उनका जीवन सरल, स्वच्छ और निष्पाप हो । इन इच्छाओं की प्राप्ति के लिए ये देवताओं की माँग के मुताबिक पशुओं का बलि चढ़ाते हैं। उदाहरण स्वरूप काटने वाले कुत्तों के लिए रोटी का टुकड़ा फेंक दिया जाता है उसी प्रकार भूत-प्रेतों को शान्त करने के लिए उनकी माँग के मुताबिक बलि चढ़ा देते हैं ताकि ये उनको हानि पहुँचा नहीं सकें । चुपचाप रहें । 3. बलि में चढ़ाये जाने वाले जानवर या पशु-पक्षी- निराकार भगवान, देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों का वर्णन पूर्व में हो चुका है। अब बलि चाहने वाले किन-किन देवताओं को क्या-क्या बलि देना है या दिये जाते हैं। इनकी जानकारी सरना मतावलम्बियों को होना जरूरी है अन्यथा पूजा-पाठ विधि-विधान के मुताबिक हो नहीं पायेगा। जानवरों में भेड़, बकरा, पठिया (कुवाँरी बकरी) भैंसा और सुअर इत्यादि बलि में चढ़ाये जाते हैं। पक्षियों में विशेषकर मुगों की पूजा होती है। मुर्गों में भी मुर्गी के छोटे-छोटे बच्चे (चेंगने) जो निष्कलंक, वेदाग, निष्पाप और शुद्ध होते हैं इसलिए चेंगने पूजा के लिए उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ होते हैं छोटी-छोटी मुर्गियों के बच्चों को पूजा में चढ़ाने के लिए मुर्गा-मुर्गी का भेद नहीं होता है । इसीलिए छोटी-छोटी मुर्गियाँ भी पूजा में चढ़ायी जाती हैं । मुर्गी के अंडे भी पूजा में चढ़ाये जाते हैं बच्चा देने वाली बकरी, भेड़, भैंसा और अंडा देने वाली मुर्गी को बलि में चढ़ाना वर्जित है। 

 

  • धर्मेश, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के लिए सफेद मुर्गे या अंडे पूजा में चढ़ाये जाते हैं। महादेव जी ही सबके मालिक हैं। महादेव जी के लिए रंगुआ या कसरी मुर्गा बलि में चढ़ता है। भेड़, बकरी, सुअर या भैंसा का बलि इनके लिए मना है । स्थापना के मुताबिक इनके दूसरे-दूसरे रूपों में ये चढ़ाये जाते हैं।

 

  • पूर्वजों के नामों में कसरी या रंगुआ मुर्गा चढ़ाया जाता है । परछाई भीतारने में सुअर का बलि चढता है । इसे उतुर करना कहते हैं।

 

  • सरना माँ या चाला पच्चों के नाम में भी रंगुआ या कसरी मुर्गा का चढ़ावा होता है।

 

  • गाँवा देवती या देवी माँ के नाम में रंगुआ मुर्गा दिया जाता है। सावन सप्तमी में बकरे का बलि होता है। 1

 

  • देशावली के लिए कसरी मुर्गा दिया जाता है । पाट राजा या दरहा जो गैराही देवता है। इसके लिए रंगुआ (लाल रंग का) मुर्गा चढ़ाया जाता है। किसी-किसी गाँव में भेड़-बकरी या भैंसा देने का भी रिवाज है। तीन, पाँच, सात या बारह वर्षों में इनका बलि दिया जाता हैं

 

  • चंडियों के नामों में काले रंग के मुर्गे या चेंगने दिये जाते हैं। मूतरी चंडी (महादेवी जी) युवक धांगरो के चंडी हैं। इसके लिए काली पठिया, काला मुर्गा या काला चेंगना दिया जाता है ।

 

  • बीड़ी वेलस (सूर्य भगवान)- यह शुद्ध देवता है | डंडा काटना पूजा के समय अंड़े चढ़ाये जाते हैं। गाँव का शुद्धिकरण हड़बोरा त्योहार के बाद होता हैं । उस समय इनके नाम में सफेद मुर्गे दिये जाते है।

 

  • अन्य मिले-जुले देवता, भुला, भटका, पोगरी भूत और भूत-प्रेत के लिए अपनी-अपनी माँग के मुताबिक मुर्गे, जानवर या अन्य पशु-पक्षी दिये जाते हैं। माँग नहीं करने पर जो प्रथा साविक से आ रही है उसी का अनुशरण कर पूजा-पाठ किया जाता है। पूजा-पाठ की तिथि और दिन पूर्व से ही निर्धारित रहते हैं।


 

उन्हीं निश्चित अवसरों पर उपरोक्त वर्णित

 

जानवर या पशु-पक्षी बलि में माँग के मुताबिक चढ़ाये जाते हैं । पूजा-पाठ के अवसर अक्सरः जन्म-मरण, नामकरण, विवाह, कनवेधी, अचराईल, रोपनी, बोनी, मिसनी, खलियानी या सभी पर्व-त्योहार हैं। खूट, भूला-भटका, पोगरी भूत या अन्य भूत-प्रेत जो व्यक्तिगत होते हैं । इनके लिए भी महीना, दिन और तिथि पूर्व से ही निर्धारित रहते हैं। धांगर, पहान और अन्य धांगरों के चुनाव की विधि- प्रचलित प्रथा के मुताबिक हरेक तीन, पाँच या सात वर्षों में धांगर पहान का चुनाव होता है। प्रायः तीन वर्ष बीत जाने से ही इनका चुनाव होना चाहिए | यह निर्धारित समय है कभी-कभी कारण वश चुनाव में देर हो जाती है। माघ महीने के करीब आठ दिन पहले ही इनका चुनाव धांगरों के बीच से ही होता है । वह धुमकुड़िया के सदस्य काल में जोख चंड़ी के साथ ही साथ गाँव के सभी चंडियों का पूजा-पाठ करता है। वह चंडियों को पानी से नहलाता, उनमें दूध ढ़ालता और तेल-सिन्दूर देता है। उराँव सरना समाज के लोगों का विश्वास है कि महादेव-पार्वती स्वयं ही अपने सेवक का चुनाव 'पाय' के द्वारा करते हैं, 

सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,


































हिरण्यक शिपु वंश प्रम्परा का वर्णन


4 vedo 18 Purano sahit 14 Vidhyavo Ka Vibhajan


16 हिन्दू संस्कार की सम्पूर्ण शास्त्रीय विधि


विज्ञान परिचय


भारतीय इतिहास की प्राचीन वंशावली


श्री कल्किपुराण अध्याय १५ 
























बौद्ध धम्म का स्वरूप मूल सिद्धांत शिक्षाएं नियम और मुख्य मान्यताएं 

 

 

 

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