रामायणों में तुलसीदास का रामचरित मानस ही चरम उत्कर्ष को प्राप्त करता है इस विषय में सन्देह नहीं, इस रामायण ने स्वमहिमा से अति अनायास ही प्रादेशिकता की सीमा का अतिक्रमण कर समग्र भारतवर्ष को ही गौरवान्वित किया है ।
वस्तुत: तुलसीदास कृत रामायण का स्थान केवल भारतीय साहित्य
में ही नहीं विश्व साहित्य में सुनिर्दिष्ट है। भारतीय कविसमाज में तुलसीदास का आसन वाल्मीकि कालिदास के पास ही है इस विषय में द्विमत नहीं हो सकता, तुलसी रामायण की दो दिशाएँ हैं, एक उसकी काव्य सौन्दर्य की और एक उसकी नैतिक सम्पदा की मात्र काव्य सौन्दर्य की ही दृष्टि से रामचरित मानस को निसंशय ही वाल्मीकि-रामायण व रघुवंश के योग्य उत्तराधिकारी रूप में स्वीकार किया जाता है । नैतिक प्रभाव की दृष्टि से रामचरित मानस को रघुवंश से श्रेष्ठ ही कहना होगा, वस्तुत: भारतवर्ष के जातीय नैतिक चरित्र गठन में रामचरितमानस ने जो शक्ति दिखाई है, एकमात्र भगवद् गीता को छोड़ और किसी के साथ उसकी तुलनीयता नहीं है। गीता के संग भी यह तुलनीय है या नहीं, इसमें सन्देह है क्योंकि गीता का प्रभाव मूलत: तत्त्वमय हैं, संस्कृतज्ञ शिक्षित समाज में ही उसका प्रभाव सीमाबद्ध है । तुलसी- रामायण की आकर्षण शक्ति प्रत्यक्ष आदर्शगत है, वह अति सहज ही व्यापक रूप से विपुल जनता को प्रभावित करती है।
रामायण की इस नैतिक मर्यादा का प्रधान कारण रामचरित्रों का महत्त्व है।
रामायण के प्रारंभ में ही हम देखते हैं कि वाल्मीकि ने नारद ऋषि से पूछा था कि पृथ्वी में ऐसा कौन मानव हैं जो चारित्रेण च को युक्त: सर्वभूतेषु को हितः । विद्वान् कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ।।
आत्मवान् को जितक्रोधो द्युतिमान् कोऽनसूयकः । कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे। -आदिकाण्ड, १/३-४
तत्पश्चात् रवीन्द्रनाथ की भाषा उद्धृत करता हूँ-
काहार चरित्र घेरि सुकठिन धर्मेर नियम छरेछे सुन्दर कान्ति माणिक्येर अङ्गदेर मतो,
महैश्वर्ये आछे नम्र, महादैन्ये के हयनि नत,
सम्पदे के थाके भये, विपदे के एकान्त निर्भीक,
के प्रेयेछे सब चेये, के दियेछे ताहार अधिक,
के लमेछे निज शिरे राज भाले मुकुटेर सम सविनये सगौरवे धरामाझे दुःख महत्तम,
कह मोरे सर्वदर्शी हे देवर्षि तार पुण्य नाम । नारद कहिला धीरे,अयोध्यार रघुपति राम।
भाषा ओ छन्द, काहिनी (१९००) “
रामायण इस नर चन्द्रमा की कथा है,
देवता की कथा नहीं, रामायण के देवता ने स्वयं को छोटा कर मनुष्य नहीं किया वरन् मनुष्य ही स्वयं के गुणों से देवता हो उठा है। इसलिए वाल्मीकि की यह उक्ति
देवतार स्तवगीते देवेरे मानव करिआने, तुलिब देवता करि मानुषेरे मोरछंद गाने।
देवता के स्तवगीत से देव को मानव कर लाता हूँ, उर्गा देवता कर मानव को अपने छन्द गान में। वस्तुत: वाल्मीकि ने रामचन्द्र को देव मर्यादा पर प्रतिष्ठित किया था इसीलिए परवर्ती काल में भारतवर्ष ने राम को नर देवता रूप में ही पूजा का अर्घ्य दिया। इसका प्रमाण रामायण ग्रंथ में ही है । वाल्मीकि ने अपने मूल रामायण में (द्वितीय से षष्ठ काण्ड तक) राम को मानव रूप में ही चित्रित किया है । किन्तु नर चरित्र की देवमहिमा से मुग्ध होकर परवर्ती कालीन किसी कवि ने रामायण के दोनों काण्डों. (आदि व उत्तर) को संयोजित कर रामचन्द्र को प्रत्यक्ष देवता रूप में ही वर्णना हुई है ।
रघुवंश में उनको 'रामाभिधानो हरिः' कृत्तिवास कृत रामायण
में भी विष्णु का अवतार कहकर वर्णित किया गया, रामचन्द्र का यह देवत्व तुलसी-रामायण में ही सर्वाधिक परिपुष्ट हुआ है जबकि उनको मानव महिमा से अतीत व साधारण मानव के आदर्श से बहिर्भूत करके नहीं रखा गया, इसलिए ही तुलसी कृत रामायण का नैतिक प्रभाव भारतीय समाज को इस प्रकार उन्नत कर पाया। इस नैतिक गौरव से ही रामायण भारतवर्ष के चित्त में इस प्रकार अनन्य साधारण मर्यादा पर प्रतिष्ठित हो पाया। वाल्मीकि के अनति दीर्घकाल में ही यह प्रभाव सुप्रतिष्ठित हो गया था इसीलिए आदिकाण्ड में ही भविष्यवाणी की गई
यावत् स्थास्यन्ति गिरय: सरितश्च महीतले। तावद् रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति ।।' आदिकाण्ड, २/३६
यह भविष्यवाणी संभवत: तभी हुई जब रामायण भारतवर्ष के साथ एकात्म हो रहा था, जब यह काव्य देश की चित्तभूमि में 'जाह्नवी हिमाचल' की तरह चिरंतन प्रतिष्ठा का अधिकारी हो रहा था, संस्कृत साहित्य के इतिहास के रचयिता
मैकडोनल्ड कहते हैं, रामायण की इस नीति सम्पदा से संग भारतवर्ष के और किसी साहित्य की तुलना नहीं होती है । भारतीय साहित्य के जिन दो नर चरित्रों ने हमारे जातीय चरित्र पर सर्वाधिक प्रभाव डाला है वे दोनों राम व कृष्ण हैं । इन दोनों चरित्रों का प्रभाव सम्पूर्ण दो विपरीत दिशा की ओर अग्रसर हुआ, इस विषय पर विस्तृत आलोचना न कर केवल तीन मनस्वी व्यक्तियों के अभिमत उद्धृत कर निरस्त होना चाहता हूँ, हिन्दी साहित्य के ऐतिहासिक का विचार है
मनस्वी ऐतिहासिक रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर का कहना है
बहुत पहले ही रवीन्द्रनाथ ने इसी के अनुरूप अभिमत और भी विशद रूप में प्रकट किया था, इस बात को स्वीकार करना ही होगा कि पश्चिम में जहाँ रामायण की बात साधारण में बहुल परिमाण में प्रचलित है वहाँ बंगाल की अपेक्षा पौरुष की चर्चा अधिक है। हमारे देश में हर गौरी की कथा में स्त्री-पुरुष एवं राधाकृष्ण की कथा में नायक-नायिका का सम्बन्ध नाना रूप में वर्णित है; किन्तु उसका प्रसार संकीर्ण है, उसमें सर्वांगीण मनुष्यत्व का खाद्य नहीं मिलता, हमारे देश में राधा-कृष्ण की कथा में सौन्दर्य वृत्ति एवं हर गौरी की कथा में हृदयवृत्ति की चर्चा हुई है किन्तु उसमें धर्मवृत्ति की अवतारणा नहीं हुई । उसमें भी वीरत्व, महत्त्व, अविचलित भक्ति व कठोर त्याग स्वीकार का आदर्श नहीं है, राम-सीता का दाम्पत्य हमारे देश में प्रचलित हर-गौरी के दाम्पत्य की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ उन्नत एवं विशुद्ध है वह जैसा कठोर-गंभीर है वैसा ही स्निग्ध-कोमल रामायण कथा में एक ओर कर्तव्य की दुरूह काठिन्य है दूसरी ओर भाव की अपरिसीम माधुर्य एकत्र सम्मिलित है। उसमें दाम्पत्य, सौभ्रात्र, पितृभक्ति, प्रभु भक्ति, प्रजावात्सल्य आदि मनुष्य के जितने प्रकार के उच्च अंग के हृदय बंधन है उनका श्रेष्ठ आदर्श प्रस्फुटित हुआ है। उसमें भी सर्वप्रकार के हृदयवृत्ति को महत्व धर्म नियम के द्वारा पग-पग पर संयत करने का कठोर शासन प्रचारित है। पूर्ण रूप से मनुष्य को मनुष्य बनाने की उपयोगी शिक्षा और किसी देश के किसी साहित्य में नहीं।
हिरण्यक शिपु वंश प्रम्परा का वर्णन
4 vedo 18 Purano sahit 14 Vidhyavo Ka Vibhajan
16 हिन्दू संस्कार की सम्पूर्ण शास्त्रीय विधि
भारतीय इतिहास की प्राचीन वंशावली
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