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buddha dharma dashan - बौद्ध धम्म का स्वरूप मूल सिद्धांत शिक्षाएं नियम और मुख्य मान्यताएं - हिंदू धर्म मैं बौद्ध अवतार

Gautam buddha dharma Bhag 2 !! बौद्ध धर्म का उदय कब हुआ? बौद्ध धम्म का स्वरूप मूल सिद्धांत शिक्षाएं नियम और मुख्य मान्यताएं क्या है, हिंदू धर्म मैं बौद्ध अवतार ।।।


हिंदुओं ने बुद्ध को भी विष्णु का नवा अवतार मानकर बौद्ध जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया। दोनों धर्मो में इतनी समानता बढ़ गई कि बौद्ध और बौद्ध धर्म हिंदू दंतकथाओं में भेद करना कठिन हो गया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि लोग बौद्ध धर्म को छोड़कर हिंदू धर्म का आश्रय लेने लगे। बौद्ध धर्म का अहिंसावाद यद्यपि मनो- मोहक था, परंतु क्रियात्मक नहीं रह गया था। राजाओं को युद्ध करने पड़ते थे, साधारण जनता भी मांसाहार छोड़ना पसंद नहीं करती थी। हिंदू धर्म में ये रुकावटे न थीं और फिर ब्राह्मणों द्वारा बुद्धदेव विष्णु के अवतार मान लिए जाने पर बहुत से बुद्ध-भक्तों की रुचि भी हिंदू धर्म की ओर बढ़ने लगी। अत्यंत प्राचीन काल से ईश्वर पर विश्वास रखती हुई आर्य जाति का चिरकाल तक अनीश्वर- वाद को मानना बहुत कठिन था। इसी तरह बौद्धों का वेदेो पर अविश्वास हिंदुओं को बहुत खटकता था ।  

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कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य आदि ने किया था बौद्ध धम्म का जोरदार खंडन 


कुमारिल तथा अन्य ब्राह्मणों ने बौद्धों के इन दोनों सिद्धांतों का जोरों से खंडन प्रारंभ किया। उनका यह आंदोलन बहुत प्रबल था और इसका परिणाम भी बहुत व्यापक हुआ। कुमारिल के बाद ही शंकराचार्य के आ जाने से इस आंदोलन ने और भी जोर पकड़ा। शंकरदिग्विजय में कुमारिल के द्वारा शंकर को निम्नलिखित श्लोक कहलाया गया है। इससे शंकर के आंदोलन की व्यापकता का पता लगता है।


श्रुत्यर्थधर्मविमुखान् सुगतान् निहन्तुं जात गुई भुवि भवतमहं नु जाने । 


अर्थात् वेदार्थ से विमुख बौद्धों को नष्ट करने के लिये प्राप गुह ( कार्तिकेय ) रूप से उत्पन्न हुए हैं ऐसा मैं मानता हूँ । इसी तरह दूसरे स्थानीय ब्राह्मणों ने भी हिंदू धर्म के प्रचार में बहुत सहायता दी। 

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बौद्ध धम्म अपने पतन का स्वां जिमेदार है।


जहाँ हिंदू धर्म को राजधर्म बनाने से बौद्ध धर्म की क्षति हुई वहाँ स्वयं बौद्ध धर्म में भी बहुत सी त्रुटियाँ आ गई थीं; उसके बहुत से संप्रदायों में विभक्त होने का उल्लेख पहले किया जा चुका छोटी छोटी बातों के कारण मत-भेद पैदा हो रहे थे। इसके अतिरिक्त थे बौद्ध भिक्षुओं में बाह्य आडंबर की अधिकता हो जाने के कारण भी जनता की उनपर से श्रद्धा उठती गई। अब बौद्ध भिक्षु वैसे सदाचारी और महात्मा न रहे थे। उनमें भी अधिकार-लिप्सा, धन-लिप्सा आदि दोष आ गए थे। ये मठों और विहारों में आराम से रहने लगे थे। उन्हें जनता के सुख-दुःखों का अधिक ध्यान न रहा था। इन सब बातों का बौदधर्म पर बहुत घातक परिणाम हुआ। बौद्ध धर्म राज्य की सहायता पाकर जिस वेग से बढ़ा था उसी वेग से, राज्य की सहा- यता न पाने तथा अन्य उपर्युक्त बाते से, उसका पतन हुआ। मौर्यवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ के देहांत के साथ ही बौद्ध धर्म की अवनति का प्रारंभ हो चुका था। वृहद्रथ को मारकर उसका शुंगवंशी सेनापति पुष्यमित्र मौर्य-साम्राज्य का बौद्ध धर्म के पतन का स्वामी बन गया। 


पुष्यमित्र शुंग द्वारा वैदिक धर्म प्रचार।


उसने फिर वैदिक धर्म का ऐतिहासिक घटनाकर पक्ष ग्रहया कर दो अश्वमेध यज्ञ किए। संभ- वतः उसने बौद्धों पर अत्याचार भी किया, ऐसा बौद्ध ग्रंथों से पाया जाता है। वस्तुतः यहीं से बौद्ध धर्म की अवनति प्रारंभ होती है। उसी काल में राजपूताने में मध्यमिका ( नगरी ) के राजा पाराशरीपुत्र सर्वतात ने भी अश्वमेध यज्ञ किया। ऐसे ही दक्षिण में आंध्र ( सातवाहन ) वंशी वैदिश्री शातकी के समय में अश्वमेध, राजसूय, दशरात्र प्रादि यज्ञ हुए। इसी तरह गुप्तवंशी समुद्रगुप्त और वाकाटकवंशियों के समय में भी अश्वमेध आदि कई यज्ञ हुए, जैसा कि उनके समय के शिलालेखादि से पाया जाता है। इस प्रकार मौर्य-साम्राज्य के अंत से वैदिक धर्म की उन्नति के साथ साथ बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। फिर वह क्रमशः अवनत होता ही गया। 


हुएन्त्संग के यात्रा-विवरण से पाया जाता है 

कि उसके समय अर्थात् सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में वैदिकधर्मावलंबियों की संख्या बढ़ने और बौद्धों की घटने लगी थी। बाणभट्ट के कथन से पाया जाता है कि थानेश्वर के वैसवंशी राजा प्रभाकरवर्द्धन के ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन ने अपने पिता का देहांत होने पर राज्यसुख को छोड़कर भदंत ( बौद्ध भिक्षुक ) होने की इच्छा प्रकट की थी और ऐसा ही विचार उसके छोटे भाई हर्ष का भी था, जो कई कारणों से फलीभूत न हो सका। हर्ष भी बौद्ध धर्म की और बड़ी रुचि रखता था। इन बातों से निश्चित है कि सातवीं शताब्दी में राजेवंशियों में भी, वैदिक धर्म के अनुयायी होने पर भी, बौद्ध धर्म ओर सद्भाव अवश्य था। वि० सं० ८४७ ( ई० स० ७-६० ) के शेरगढ़ ( कोटा राज्य ) के शिलालेख से पाया जाता है कि नागवंशी देवदत्त ने कोशवर्द्धन पर्वत के पूर्व में एक बौद्ध मंदिर में और मठ बनवाया था, जिससे अनुमान होता है कि वह बौद्ध धर्मा- वलेबी था। ई० सन् की बारहवीं शताब्दी के अंत तक मगध और बंगाल को छोड़कर भारतवर्ष के प्रायः सभी विभागों में बौद्ध धर्म नष्टप्राय हो चुका था और वैदिक धर्म ने उसका स्थान ले लिया था।

सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 1-40,


































हिरण्यक शिपु वंश प्रम्परा का वर्णन


4 vedo 18 Purano sahit 14 Vidhyavo Ka Vibhajan


16 हिन्दू संस्कार की सम्पूर्ण शास्त्रीय विधि


विज्ञान परिचय


भारतीय इतिहास की प्राचीन वंशावली


श्री कल्किपुराण अध्याय १५ 
















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